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रविवार, 26 जून 2011

नहीं कुछ लिखा है बहुत वक्त बीता
चलूँ आज कागज़ को फिर से रंगूँ मैं .

नहीं बाँध सकती हवाओं को हरगिज़
खयालात पर कैसे बंदिश रचूँ मैं .

खुद अपने ही चहरे से वाकिफ नहीं हूँ
नकाबों से तेरे क्या शिकवा करूँ मैं .

लहू कम बचा है रगों मे जो मेरी
चरागों को अब कैसे रोशन करूँ मैं .

क्यों बेजान चीज़ों से बतिया रही हूँ
चलूँ अब दरख्तों से बातें करूँ मैं .

सुना तेरे दम से ही चलती है दुनिया
खुदा कैसे तुझको ही काफ़िर कहूँ मैं.