# आज नदिया के किनारे मैं खडी थी सोचती
भावनाओं की लहर थमती नहीं, मे क्या करूँ।
# आँख से निकले जो आंसू आँख मे ही सूखते
ऐसी जज्बातों की लौ है, हाय रे मैं क्या करूँ.
# रेत पर लिख दी थी मैंने अपने दिल की दास्ताँ
ये हवाएं भी मेरी दुश्मन बनी, मैं क्या करूँ.
# ना बिछाना फूल मेरी राह मैं ऐ हमसफ़र
पाँव के छाले सुहाते हैं मुझे, मैं क्या करूँ.
# आज अपने आशियाँ को इक नज़र भर देख लूं
कल ये तिनके बिखर जाएँ तो भला मैं क्या करूँ.
# चिलचिलाती धूप मे चलनें की आदत हो गई
छाँव मे जलता बदन है अब मेरा, मैं क्या करूँ.
# मौत से बढ़कर नहीं उम्मीद कोई दूसरी
फिर उसी की आरज़ू मे दिन कटा, मैं क्या करूँ।