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शनिवार, 20 सितंबर 2008

ज़माना

न कोई दोस्त है मेरा नही कोई भी साथी है
सोचती हूँ पीठ पर ये ज़ख्म कैसे हो गए ?

बहुत कहते थे वो ख़ुद को मेरा हित चाहने वाले
घर उजड़ते ही मेरा बेदर्द कैसे हो गए ?

ये दुनिए क्या है ये जानो कि ये केवल तमाशा है
जो कल तक थे इधर ऐ दिल वो अब उस पार कैसे हो गए?

पंहुचाया मुकद्दर ने जो शोहरत कि बुलंदी पर
जो कल थे घात मे बठे हमारे यार कैसे हो गए ?

बदलते इस ज़माने ने ज़रा हमको भी बदला है
नहीं कुछ बोलते थे हम कभी बेबाक कैसे हो गए ?