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रविवार, 26 जून 2011

नहीं कुछ लिखा है बहुत वक्त बीता
चलूँ आज कागज़ को फिर से रंगूँ मैं .

नहीं बाँध सकती हवाओं को हरगिज़
खयालात पर कैसे बंदिश रचूँ मैं .

खुद अपने ही चहरे से वाकिफ नहीं हूँ
नकाबों से तेरे क्या शिकवा करूँ मैं .

लहू कम बचा है रगों मे जो मेरी
चरागों को अब कैसे रोशन करूँ मैं .

क्यों बेजान चीज़ों से बतिया रही हूँ
चलूँ अब दरख्तों से बातें करूँ मैं .

सुना तेरे दम से ही चलती है दुनिया
खुदा कैसे तुझको ही काफ़िर कहूँ मैं.

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सृजन रुकता नहीं, कैसा भी परिवेश हो।

विभूति" ने कहा…

bhaut hi khubsurat likha hai aapne...

mai... ratnakar ने कहा…

अंशुजा जी
इक और बेहतरीन कृति के लिये मेरी बधाई स्वीकार करें आपने रचना के शुरुआत में जो लिखा कि 'नहीं कुछ लिखा है बहुत वक़्त बीता' ये तो ऐसा लगता है मानो आप की आत्मस्वीकारोक्ति और मुझ सरीखे आपके प्रशंसकों की शिकायत का मिला-जुला रूप हो.. कृपया लिखते रहिये धन्यवाद

Dev ने कहा…

behad khoobsoorat lekh, lekhni ko itne lambe samay tak apne se door na kare, wo bhi lekh ukerne ko bechain ho jati hogi